गुरुवार, 31 जुलाई 2008

मंहगाई

कभी नहीं था सोचा मैंने, ऐसा भी हो सकता है ।
बिन ईधन के चलना मुश्किल, सब की हालत खसता है ।।
सब की हालत खसता है, ईधन हुआ मंहगा नशा ।
अमेरिका-ईरान संबंधों से, हुई यह दुर्दशा ।।
कच्चे तेल की बढती कीमत, परेशान हैं आज सभी ।
दादा गिरी, आपना असत्तव, असर दिखाये कभी-कभी ।।



बिगडा पर्यावरण, कहीं है बाढ-कहीं है सूखा ।
कृषि उत्पादन कमी आई है, आज किसान है भूखा ।।
आज किसान है भूखा, लागत ज्यादा उत्पादन कम ।
कर्जा चुका नहीं है पाता, तोड रहा है दम ।।
सुरसा जैसा मुँह फैलाये, मंहगाई ने झिगडा ।
विदेशी आनाज मगाया, देशी बजट है बिगडा ।।



मकान, सोना चाँदी, हुई आज है सपना ।
बेरोजगारी बढती जाती, रंग दिखाती अपना ।।
रंग दिखाती अपना, आज है मुश्किल शिक्षा पाना ।
भ्रष्टाचार का जाल है फैला, योग्य-अयोग्य न जाना ।।
शादी के संजोये सपने, मंहगाई फीके पकवान ।
कर्मचारी, मजदूर, किसान, बचा सके न आज मकान ।।




नेता की परिभाषा बदली, पाखंडी बनाया बेश ।
कभी भूनते तंदूरों में, बाहुबली चलाते देश ।।
बाहुबली चलाते देश, धर्म-जाति आपस लडबाते ।
सत्ता में आ जाते , वेतन सुख-सुविधाएं पाते ।।
सब कुछ मंहगा मौत है सस्ती, लाज के ये क्रेता ।
कुछ नही सिद्धांत इनका, भ्रष्ट आचरण नेता ।।



दर-दर बढती जनसंख्या, भूमि है स्थाई ।
कृषि भूमि में बनी हैं बस्ती, ऐसी नौबत आई ।।
ऐसी नौबत आई, जनसंख्या पर रोक लगाओ ।
नूतन तकनीती से, आवश्यकता पूर्ण कराओ ।।
विज्ञानकों का कर आव्हान, अबिष्कार को कर ।
पर्यावरण का कर संरक्षण, रोको मंहगाई की दर ।।