बुधवार, 6 फ़रवरी 2008

संस्कृति



जब से बाहर वालो भैया,
भीतर है पिड आओ ।
संस्कृति हाँ चौपट कर दओ,
सबरो खोज मिटाओ ।।


बरात चलबे हाँ तैयार
बैलन माला घुँघरुदार ।
चल वे गाडी,कहरवा होवे
बराती मदमस्ति में खोवे ।।


जनवासे में बसी बरात ।
गाडी ढिल गयी,पहुंची बात ।।
परोसी ने काम काज जमाओ
जैसे उनके घरे कौउ आओ ।
इतनो नीको प्रेम हमाओ,
तनक देर में सबे नसाओ ।।

जब से बाहर...........................


नाऊ पंडित रिस्तेदार,
करें जाकर सबको सत्कार ।
गले में रये हैं मालाडार,
पालकी ले आये कहार ।।
पहले आयी है मिर्चवाई,
फिर आयी है खूब मिठाई ।
तीन दिना लो बरातें होवें ।
नौटंकी राई में खोवें।।

कैसो दिन अब जो आओ ।
रात भरे में घरे भगाओ।।
जब से बाहर...........................
ना कभी आगी परचाई,
परोसी के घर से लै आई ।
पुरा परोस के सब जुर आयीं
संगें उरसा, बिलना लायीं।।
बेलन बिन पैस्सन मेन आयी,
जिबनरे कि गरी गयी ।
लुच ई बना कर सबे खवाई
आव भगत से पातें जिमाई ।।
अब नओ जमानो आओ ।
ठारें -ठारें सबे खवाओ।।

जब से बाहर...........................
पशुधन मिलत दहेज हतो तो
दूध दही घी खावे ।
अब तो टीवी मिलन लगो है,
घर में आग लगावे ।।
टीवी को ऐसो प्रभाव
बीमारी सो हो गओ।।
किस्सा कहानी भूले बिसरे।।
मन फ़िलमन में खो गओ।।।
सीडी को जमानो आओ ।

जब से बाहर...........................
टूट रहें हैं घर और दुवार
सबरे बदल गये संस्कार ।
उन्ना-लत्ता ओछे कर दये
तन को हो रहो है रुजगार।।
जहां होत ती लीलायें,
पायल की झनकारे होयें ।
उते हो अधनंगे नाच,
मन बिलासता में खोयें।।
ऐसो समय को भवो बदलाओ ।
फ़िरंगी पहनावा अपनाओ ।।

जब से बाहर...........................

पंच करत ते उतैयी फ़ैसला,
कोट मैं लग रये बरसें ।
पैसा बाले मजा उडावे,
गरीब न्याय हाँ तरसें ।।
स्वदेशी चीजें बस्तु भूले,
विदेशी छा गये आज बज़ार ।
नयी- नयी बीमारी हैं आयीं,
हो रओ भारी बंटाढार ।।
नयी सदी मैं पै जमाओ ।
जब से जनो अपनो पराओ ।।

जब से बाहर...........................

दूध बुंदेली, विदुषी पहचान,
जानत हतो सकल जहान,
एक सें एक भये हैं योद्दा
ईश्वरी जैसे कवि महान
घाट-घाट को पानी मिलकें,
ऐसो भव बदलाव,
दूध को दूध पानी को पानी,
फ़िर सें इसे बनाव,
धरा बुंदेली कला प्रेमियो,
मिल-जुल हांथ बटाओ

जब से बाहर...........................